व्यावसायिक चक्रों के प्रभाव

व्यावसायिक चक्रों के अच्छे तथा बुरे दोनों प्रभाव इस बात पर आधारित होते हैं कि अर्थव्यवस्था समृद्धता की दशा से गुजर रही है या मंदी की दशा से।

रोजगार समृद्धता दशा में ‘वास्तविक उपभोग्य आय, वास्तविक उत्पादित आय तथा रोजगार का स्तर ऊचे या बढ़ते होते है तथा कोई बेकार या बेरोजगार श्रमिक नहीं होते या उनमें से कोई बहुत कम होते हैं। आर्थिक

गतिविधि में सामान्य बढ़ोत्तरी होती है-कुल आउटपुट, माँग,

तथा आय ऊंचे स्तर पर होते हैं। मूल्य बढ़ रहे होते हैं। लाभ बढ़ रहे होते हैं। स्कंध बाजार शीघ्रता से नई ऊंचाइयों पर पहुंच रहे होते हैं। उदार बैंक साख के कारण विनियोग बढ़ रहे होते हैं। यह पूरी प्रक्रिया संचयी तथा स्व-पुनर्निर्धारित होती है।

लेकिन समाज के विभिन्न खंड समृद्धता दशा के दौरान भिन्न- भिन्न तरह से प्रभावित होते हैं। भूमिहीन, कारखाना तथा कृषि श्रमिक तथा मध्यम वर्ग तकलीफ सहता है क्योंकि उनकी मजदूरियों तथा वेतन ज्यादातर स्थिर होते हैं पर वस्तुओं के मूल्य लगातार बढ़ते हैं। वे और ज्यादा गरीब हो जाते हैं। दूसरी तरफ व्यवसायी, व्यापारी, उद्योगपति,

अचल संपत्ति के मालिक, सट्टेबाज, भूमिपति, अंशधारक तथा अन्य विचलनशील आय वाले लाभ प्राप्त करते हैं। अतः अमीर और अमीर हो जाते हैं तथा गरीब और गरीब हो जाते हैं।

सामाजिक प्रभाव भी खराब होते हैं। लाभ के लालच में जमाखोरी, कालाबाजारी, मिलावट, खराब मानकों की वस्तुओं का उत्पादन, सट्टा आदि होता है। जीवन के हर क्षेत्र में भ्रष्टाचार फैल जाता है।

जब अर्थव्यवस्था संसाधनों के पूर्ण रोजगार स्तर पर पहुँचती है तब उत्पादन पर बुरे प्रभाव दिखना शुरू होते हैं। कच्चे माल के बढ़ते मूल्य तथा मजदूरियों में वृद्धि उत्पादन की लागतों को बढ़ा देते हैं। इसके परिणामस्वरूप लाभ के मार्जिन्स कम हो जाते हैं। पूँजी की दुर्लभता के कारण ब्याज दरें बढ़ जाती हैं जो विनियोग को महँगा बना देते है। ये दो कारक व्यावसायिक उम्मीदों को कम कर देते हैं। अंत में उपभोक्ता वस्तुओं की माँग मूल्यों में विस्तारित वृद्धि के कारण नहीं बढ़ती। इससे उत्पादकों तथा व्यापारियों के साथ वस्तुओं (स्कंधों) का ढेर लग जाता है। अतः बिक्री उत्पादन के पीछे हो जाती है। मूल्यों में कमी होती है। उत्पादक, व्यवसायी तथा व्यापारी निराशावादी हो जाते हैं तथा recession शुरू हो जाती है।

recession के दौरान, लाभ मार्जिन्स और भी कम हो जाते है क्योंकि लागतें मूल्यों से ज्यादा बढ़ना शुरू हो जाती हैं। कुछ फर्मों बंद हो जाती हैं। अन्य उत्पादन में कमी करती हैं तथा इकट्ठे स्कंध को बेचने का प्रयत्न करती है। विनियोग, आउटपुट, रोजगार, आय, माँग तथा मूल्य

और कम हो होते हैं। यह प्रक्रिया संचयी हो जाती है तथा recession मंदी में एकीकृत हो जाता है।

मंदी के दौरान विशाल बेरोजगारी होती है। मूल्य लाभ तथा

मजदूरियों उनके न्यूनतम स्तरों पर होते हैं। वस्तुओं तथा सेवाओं के लिए माँग न्यूनतम होती है। विनियोग, बैंक जमा तथा बैंक ऋण नगण्य होते हैं। सभी प्रकार की पूँजीगत वस्तुओं, भवनों आदि का निर्माण रुका रहता

है। अर्थव्यवस्था में विशाल बेरोजगारी होती है। प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष करों से सरकार के आगम कम हो जाते हैं। ऋण का वास्तविक भार बढ़ जाता है। देश का आर्थिक विकास हानि सहन करता है।

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