सामान्यतया ‘बाजार’ शब्द से हमारा तात्पर्य उस बाजार स्थान
से होता है जहाँ वस्तुओं को खरीदा और बेचा जाता है किन्तु अर्थशास्त्र
में बाजार से हमारा अभिप्राय उस वस्तु से होता है जिसके क्रेता और
विक्रेता परस्पर प्रत्यक्ष प्रतियोगिता की स्थिति में होते हैं। प्रो. जे.सी. एडवर्डस ने बताया “बाजार वह तंत्र है जिसके द्वारा क्रेताओं और विक्रेताओं को एक साथ लाया जाता है। यह आवश्यक तौर पर कोई निश्चित स्थान नहीं हुआ करता।” क्रेताओं और विक्रेताओं के बीच प्रतियोगिता के आधार पर बाजार का वर्गीकरण किया जाता है। अपूर्ण प्रतियोगिता को बाजार का काफी महत्त्वपूर्ण रूप माना जाता है।
अपूर्ण प्रतियोगिता का अर्थ
दिन-प्रतिदिन के नैमित्तिक जीवन में न तो केवल परिपूर्ण प्रतियोगिता और न ही केवल परिशुद्ध एकाधिकार का अस्तित्व हुआ करता है। व्यावहारिक जीवन में इन दोनों चरम छोरों के बीच की स्थिति का अस्तित्व पाया जाता है और इसे ‘अपूर्ण प्रतियोगिता’ के रूप में जाना जाता है।
अतएव अपूर्ण प्रतियोगिता वह स्थिति है जो इन छोरों- अर्थात् परिपूर्ण प्रतियोगिता और अनन्य एकाधिकार के बीच बना करती है। अन्य
शब्दों में, चूँकि ये दोनों चरमबिन्दु हैं जो कि व्यावहारिक होते ही नहीं और केवल काल्पनिक या अवास्तविक हुआ करते हैं, इसलिए वास्तविक स्थिति का संबंध केवल अपूर्ण प्रतियोगिता से ही हुआ करता है। इसमें एक ओर जहाँ क्रेताओं और विक्रेताओं की संख्या लघुतर हुआ करती है, वहीं दूसरी ओर वस्तुओं में भी पर्याप्त विविधता हुआ करती है। इसी कारणवश इसमें कीमतों की एकरूपता संभव नहीं हो सकती। इसके दोनों क्रेताओं और विक्रेताओं में से किसी के पास भी बाजार के संबंध में पूर्ण अथवा संपूर्ण सूचना नहीं होती।
प्रो. लर्नर के अनुसार, अपूर्ण प्रतियोगिता का अस्तित्व उस समय पाया जाता है जब किसी विक्रेता को अपनी वस्तुओं के माँग वर्क में आ रही गिरावट या कमी का सामना करना होता है। निष्कर्षतया यह कहा जा सकता है कि अपूर्ण प्रतियोगिता तो बाजार का यह है। जिसमें अनेक लघु आकार की प्रतियोगी फर्मों द्वारा अपने मिलते जुलते। और लगभग समरूपी वस्तुओं का विक्रय किया जाता है जो अपने आकार प्रकार और गुणवताओं में संपूर्णतया अथवा पूर्वक
अपूर्ण प्रतियोगिता की विशिष्टताएं
परिपूर्ण प्रतियोगिता के सुनिश्चित तत्वों की ओर संकेत करते.
हुए विभिन्न अर्थशास्त्रियों ने भिन्न-भिन्न परिभाषाएं दी है। हम विविध
तत्त्वों को सूचीबद्ध कर सकते हैं जो बाजार के परिपूर्ण प्रतियोगी संकेत करते हैं। अन्य शब्दों में कुछ आवश्यक ऐसी होती है जिनकी संतुष्टि की जानी तब आवश्यक होती है यदि बाजार परिपूर्ण हो। हम इनकी निम्नवत व्याख्या करते हैं.
(1) विक्रेता फर्मों की संख्या सामान्य से अधिक हो अपूर्ण प्रतियोगिता में विक्रेता फर्मों की संख्या सामान्यतया काफी अधिक हु उनके द्वारा समूचे उद्योग के कुल उत्पादन के काफी छोटे उत्पादन किया जाता है। ये सभी विक्रेता फर्म स्वतंत्र रूप से करती भाग का कार्य करती है।
(2) वस्तु पृथक्करण अपूर्ण प्रतियोगी बाजार में विक्रय के
लिये वस्तुएं यद्यपि अपनी गुणवत्ता आकार प्रकार मात्रा और रूपरंग में
परस्पर काफी मिलती-जुलती है, फिर भी ये एक-दूसरे से पर्याप्त भिन्न और अलग हुआ करती है। प्रत्येक फर्म का यह प्रयास होता है कि विक्रय के लिए उत्पादित चीज या वस्तु कुछ भिन्न प्रकार की होनी चाहिए। फिर
भी ये एक-दूसरे की निकटस्थ स्थानापन्न ही हुआ करती है।
(3) फर्मों का आसान और स्वतंत्र प्रवेश तथा निर्गम: अपूर्ण प्रतियोगिता में विक्रय करने वाली फर्मे स्वतंत्र हुआ करती है। वे काफी सफलता से बाजार में प्रवेश कर सकती है और अपनी सुविधा या आवश्यकता के अनुसार वे बाजार से चली भी जा सकती है।
(4) विक्रयों की उच्चतर लागते इस किस्म के बाजार में विक्रय लागते अत्यधिक हुआ करती है क्योंकि प्रत्येक फर्म द्वारा अपने विक्रयों में वृद्धि लाने के लिए उत्पादों के विज्ञापन और प्रचार प्रसार का सहारा लिया जाता है और ग्राहकों को लुभाया जाता है।
(5) क्रेताओं की पसंदगी या झुकाव विभिन्न फर्मों द्वारा
अपूर्ण प्रतियोगिता में उत्पादित चीजें क्रेताओं के अलग और विविध
रूचि को विषयवस्तु बन जाया करती है। उपभोक्ताओं द्वारा अधिक पसंद
अधिक कीमत वसूली जाती है।
वाली चीजों की अधिकाधिक माँग बनती है और उपभोक्ताओं से उनकी
(6) फर्म का अपने उत्पादों पर एकाधिकार (अनन्य अधिकार)
प्रत्येक फर्म को अपने विनिर्मित उत्पादों और उनके विक्रय के लिए
बाजार में अपने क्रेताओं पर परिपूर्ण और अनन्य पकड़ होती है। अतएव, यह क्रेताओं पर एकाधिकार का ही एक रूप है।
अपूर्ण प्रतियोगिता में कीमत निर्धारण
यह महत्त्वपूर्ण बात है कि माँग और आपूर्ति के बीच संतुलन
कैसे बनाए रखा जाए। बाजार की अन्य परिस्थितियों की तरह अपूर्ण
प्रतियोगिता में भी प्रत्येक फर्म द्वारा अपने लाभों में अधिकतम वृद्धि के
प्रयास किए जाते है। अतएव, फर्म का प्रस्ताव उस कीमत और उत्पादन के स्तर को अपनाने का होता है जिस पर अधिकतम लाभ की प्राप्ति संभव हो सके। यह परिस्थिति तब उत्पन्न होती है जब सीमांत राजस्व (MR) और सोमात लागत (MC) परस्पर समरूप हो जाती है।