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साधारण बोलचाल में ‘बाजार’ का मतलब उस स्थान विशेष से होता है जहाँ लोग वस्तुओं को बेचने तथा खरीदने के लिए इकट्ठे होते हैं। लेकिन अर्थशास्त्र में ‘बाजार’ शब्द का प्रयोग ज्यादा व्यापक रूप में किया जाता है। अर्थशास्त्र में बाजार का अर्थ एक विशेष स्थान से न होकर उस सम्पूर्ण क्षेत्र से होता है जहाँ किसी वस्तु के क्रेता तथा विक्रेता फैले रहते हैं। इसका कारण यह है कि वर्तमान युग में वस्तुओं की खरीद तथा बिक्री, एजेण्टों एवं नमूनों की मदद से होती है। अतः वस्तु विशेष के खरीददार तथा विक्रेता एक बड़े क्षेत्र में दूर-दूर तक फैले रहते हैं। इनके बीच वस्तुओं का लेन-देन, पत्र-व्यवहार, टेलीफोन, तार, इंटरनेट आदि के माध्यम से भी हो सकता है। इसलिए अर्थशास्त्र में ‘बाजार’ का अर्थ स्थान विशेष से न होकर उस सम्पूर्ण क्षेत्र से होता है जहाँकिसी वस्तु की खरीद-बिक्री की जाती है।
इन लेन-देन में समस्त बाजार में वस्तु का एक ही मूल्य होता है।
प्रो. चैपमैन के अनुसार, “बाजार शब्द का सम्बन्ध किसी विशेष स्थान से नहीं वरन् एक वस्तु तथा उसके क्रेताओं एवं विक्रेताओं से है जिनमें आपस में प्रत्यक्ष प्रतियोगिता होती है।”
कूर्मों के अनुसार, “अर्थशास्त्रियों का ‘बाजार’ शब्द से तात्पर्य किसी विशेष स्थान से नहीं होता, जहाँ वस्तुएं खरीदी तथा बेची जाती हैं, वरन् उस सारे क्षेत्र से होता है जहाँ क्रेताओं तथा विक्रेताओं में आपस में ऐसी स्वतंत्र प्रतियोगिता होती है कि एक ही तरह की वस्तुओं की कीमतें शीघ्रता तथा सरलता से एक होने की प्रवृत्ति पाई जाती है।”
उपर्युक्त परिभाषाओं में प्रो. कूर्नो की परिभाषा ज्यादा व्यापक तथा उचित है जिसमें बाजार की सभी विशेषताएं पाई जाती हैं।
बाजार की आवश्यक विशेषताएं बाजार की प्रमुख विशेषताएं निम्न हैं-
(1) एक क्षेत्र – अर्थशास्त्र में ‘बाजार’ का अर्थ एक विशेष स्थान से न होकर सारे क्षेत्र से होता है जहाँ किसी वस्तु के क्रेता तथा विक्रेता फैले रहते हैं। यातायात तथा संचार के साधनों का विकास हो जाने से वस्तु के बाजार का क्षेत्र बहुत विस्तृत हो गया है।
(2) एक वस्तु अर्थशास्त्र में बाजार का सम्बन्ध ‘स्थान’ से न होकर ‘वस्तु विशेष’ से होता है। अत: अलग-अलग तरह की वस्तुओं हेतु अलग-अलग तरह की वस्तुओं हेतु अलग-अलग बाजार होते हैं। उदाहरण के लिए, कपड़े का बाजार, अनाज का बाजार, सोने चाँदी आदि के अलग- अलग बाजार होते हैं।
(3) क्रेता तथा विक्रेता बाजार में ‘वस्तु’ की खरीद तथा बिक्री
हेतु क्रेताओं तथा विक्रेताओं की उपस्थिति जरूरी होती है। वर्तमान में
क्रेताओं तथा विक्रेताओं की बाजार में उपस्थिति जरूरी नहीं है, क्योंकि
वे पत्रव्यवहार या टेलीफोन या व्यापार प्रतिनिधियों के माध्यम से वस्तु
का लेन-देन कर सकते हैं।
(4) स्वतंत्र प्रतियोगिता बाजार में क्रेताओं तथा विक्रेताओं के
बीच स्वतंत्र प्रतियोगिता होनी चाहिए। यह प्रतियोगिता क्रेताओं तथा विक्रेताओं के बीच वस्तु की कीमत निर्धारण के सम्बन्ध में होती है।
(5) एक मूल्य-क्रेताओं तथा विक्रेताओं के मध्य स्वतंत्र प्रतियोगिता होने के कारण बाजार में वस्तु की कीमत एक समान होती है बाजार के उपरोक्त तत्त्वों के आधार पर इसकी सामान्य परिभाष
निम्न तरह से की जा सकती है-
किसी वस्तु के बाजार का अर्थ उस सारे क्षेत्र से है जहाँ उस वस्तु
के क्रेता तथा विक्रेता फैले होते हैं एवं उनके बीच इस तरह की स्वतंत्र
प्रतियोगिता होती है कि उस समस्त क्षेत्र में उस वस्तु की एक ही कीपर
पाई जाती है।
बाजार का ढाँचा तथा प्रतियोगिता की मात्रा
आर्थिक दृष्टि से, एक बाजार एक व्यवस्था है जिसके द्वारा क्रेता तथा विक्रेता एक उत्पाद के मूल्य के लिए सौदा करते हैं, मूल्य निर्धारित | करते हैं तथा उनका व्यापार करते हैं- एक उत्पाद को खरीदते हैं व बेचते हैं। क्रेता व विक्रेता के बीच व्यक्तिगत संपर्क जरूरी नहीं है। कुछ स्थितियों में जैसे forward विक्रय तथा क्रय में, यहाँ तक कि माल के स्वामित्व का तुरंत हस्तांतरण भी जरूरी नहीं है। बाजार का अर्थ जरूरी तौर पर एक स्थान |
नहीं है। एक वस्तु के लिए बाजार स्थानीय, क्षेत्रीय, राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय हो सकता है। बाजार को क्रेताओं का एक समूह, विक्रेताओं का एक समूह
तथा एक वस्तु बनाती है। जहाँ क्रेता खरीदना तथा विक्रेता बेचना चाहते है
तथा वस्तु के लिए एक मूल्य है।
यहाँ हमें इस प्रश्न से मतलब है-बाजार में एक वस्तु का मूल्य मूल्य का निर्धारण क्रेताओं व कैसे निर्धारित होता है? एक वस्तु विक्रेताओं की संख्या पर निर्धारित होता है। कुछ स्थितियों को छोड़कर जैसे स्कंध तथा प्रॉपर्टी बाजारों की कुछ दशाओं को छोड़कर क्रेताओं की संख्या विक्रेताओं की संख्या से ज्यादा होती है। बाजार एक उत्पाद के में विक्रेताओं की संख्या बाजार में प्रतियोगिता की प्रकृति व मात्रा को / निर्धारित करती है। प्रतियोगिता की प्रकृति व मात्रा बाजार के ढाँचे को / तय करती है।